श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 1 – भाग 4 श्लोक 31–40: अर्जुन का विषाद, युद्ध से होने वाले कुलनाश, अधर्म, वर्ण-संकर और सामाजिक विनाश का भय

भगवद्गीता अध्याय 1 – भाग 4 (श्लोक 31 से 40)
भगवद्गीता अध्याय 1 भाग 4

भगवद्गीता अध्याय 1 – भाग 4 (श्लोक 31 से 40)

श्लोक और अर्थ सुनें
इस भाग में हम भगवद्गीता के प्रथम अध्याय के श्लोक 31–40 का अध्ययन करेंगे। इन श्लोकों में अर्जुन का गहरा मानसिक और नैतिक संघर्ष प्रकट होता है। वह युद्ध के परिणामों पर विचार करते हुए कुल-नाश, धर्म-भ्रंश और समाज के पतन का भय व्यक्त करता है। अर्जुन के लिए यह युद्ध केवल विजय का नहीं, बल्कि धर्म और अधर्म का प्रश्न बन जाता है।
अध्याय 1 • श्लोक 31
निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव।
न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे।। 31।।
अर्थ:
हे केशव! मुझे युद्ध में अनेक विपरीत और अशुभ संकेत दिखाई दे रहे हैं। अपने ही स्वजनों को मारकर मुझे कोई कल्याण नहीं दिखता।
अध्याय 1 • श्लोक 32
न काङ्क्षे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च।
किं नो राज्येन गोविन्द किं भोगैर्जीवितेन वा।। 32।।
अर्थ:
हे कृष्ण! मैं न विजय चाहता हूँ, न राज्य और न ही सुख। हे गोविंद! ऐसे राज्य, भोग और जीवन का क्या लाभ?
अध्याय 1 • श्लोक 33
येषामर्थे काङ्क्षितं नो राज्यं भोगाः सुखानि च।
त इमेऽवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च।। 33।।
अर्थ:
जिनके लिए हम राज्य, भोग और सुख चाहते थे, वही लोग आज युद्धभूमि में अपने प्राण और धन त्यागने को तैयार खड़े हैं।
अध्याय 1 • श्लोक 34
आचार्याः पितरः पुत्रास्तथैव च पितामहाः।
मातुलाः श्वशुराः पौत्राः श्यालाः सम्बन्धिनस्तथा।। 34।।
अर्थ:
इस युद्ध में हमारे आचार्य, पिता, पुत्र, पितामह, मामा, ससुर, पौत्र, साले और अन्य संबंधी उपस्थित हैं।
अध्याय 1 • श्लोक 35
एतान्न हन्तुमिच्छामि घ्नतोऽपि मधुसूदन।
अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतोः किं नु महीकृते।। 35।।
अर्थ:
हे मधुसूदन! मैं इन लोगों को मारना नहीं चाहता, चाहे इसके बदले मुझे तीनों लोकों का राज्य ही क्यों न मिल जाए। फिर पृथ्वी के राज्य की तो बात ही क्या है।
अध्याय 1 • श्लोक 36
निहत्य धार्तराष्ट्रान्नः का प्रीतिः स्याज्जनार्दन।
पापमेवाश्रयेदस्मान्हत्वैतानाततायिनः।। 36।।
अर्थ:
हे जनार्दन! धार्तराष्ट्रों को मारकर हमें कौन-सा सुख मिलेगा? ऐसे आततायियों को मारने से हमें केवल पाप ही लगेगा।
अध्याय 1 • श्लोक 37
तस्मान्नार्हा वयं हन्तुं धार्तराष्ट्रान्स्वबान्धवान्।
स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधव।। 37।।
अर्थ:
इसलिए हे माधव! अपने ही बंधुओं को मारना हमारे लिए उचित नहीं है। अपने स्वजनों को मारकर हम कैसे सुखी हो सकते हैं?
अध्याय 1 • श्लोक 38
यद्यप्येते न पश्यन्ति लोभोपहतचेतसः।
कुलक्षयकृतं दोषं मित्रद्रोहे च पातकम्।। 38।।
अर्थ:
लोभ से अंधे ये लोग कुल-नाश के दोष और मित्र-द्रोह के पाप को नहीं समझ पा रहे हैं।
अध्याय 1 • श्लोक 39
कथं न ज्ञेयमस्माभिः पापादस्मान्निवर्तितुम्।
कुलक्षयकृतं दोषं प्रपश्यद्भिर्जनार्दन।। 39।।
अर्थ:
हे जनार्दन! कुल-नाश से उत्पन्न पाप को जानने वाले हम लोग इस अधर्म से क्यों न हटें?
अध्याय 1 • श्लोक 40
कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्माः सनातनाः।
धर्मे नष्टे कुलं कृत्स्नमधर्मोऽभिभवत्युत।। 40।।
अर्थ:
कुल के नाश से सनातन कुल-धर्म नष्ट हो जाते हैं, और धर्म के नष्ट होने पर पूरे कुल में अधर्म फैल जाता है।

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